हिंदी दिवस 2022: पढ़ें और आत्मसात करें यह खूबसूरत कविता

हिंदी दिवस 2022:  पढ़ें और आत्मसात करें यह खूबसूरत कविता
हिंदी दिवस 2022: पढ़ें और आत्मसात करें यह खूबसूरत कविता

                        “हिंदी हूँ”

हिंदी हूँ, भारत माँ के माथे की बिंदी हूँ ।
देश का सम्मान हूँ, संविधान हूँ आपका अभिमान हूँ, 
गांव का आँगन हूँ, खेत हूँ, खलिहान हूँ, हाथों की मेहंदी हूँ, 
हिंदी हूँ, भारत माँ के माथे की बिंदी हूँ ।

गाँव की गोरी हूँ, वही चन्दा-मामा वही दादी की लोरी हूँ,
मैंने तुझे नाम दिया, माता-पिता का सम्मान दिया,
जब तूने मुह खोला, हिंदी में ही तो माँ बोला,
हिंदी हूँ, भारत माँ के माथे की बिंदी हूँ ।

लेकिन ! अब तो तुम रुठ गए, हिंदी वाले सब छूट गए,
जब भी तेरे निकट गई, हिंदी दिवस तक सिमट गई, 
गाँधी,  सुभाष को जब आभास हुआ, मेरे नारों से तो देश आजाद हुआ,
हिंदी हूँ, भारत माँ के माथे की बिंदी हूँ ।

कबीर तुलसी की आत्मा हूँ, दिनकर नीरज की वाणी हूँ,
साहित्य का आगाज हूँ, अटल, निराला की आवाज हूँ, 
बृज की होली हूँ, गरीबों की बोली हूँ, 
हिंदी हूँ, भारत माँ के माथे की बिंदी हूँ ।

लेकिन ! अब रो रही अपनी शान को, अपनी पहचान को, 
मेरे बिन बचपन क्या था, जवानी क्या वो लड़कपन क्या था?
क्यों मुझसे सब रुठ गए? क्यों मेरे अपने छूट गए?
हिंदी हूँ, भारत माँ के माथे की बिंदी हूँ ।

मैंने धर्म दिया, कर्म दिया, सत्कार व संस्कार दिया,
नमस्कार-प्रणाम दिया, वेद पुराणों का ज्ञान दिया,
अब होलो-हाई हुई,टाटा बाई-बाई हुई, इस पर मैं बेचैन हूँ, फिर भी मैं मौन हूँ, 
हिंदी हूँ, भारत माँ के माथे की बिंदी हूँ ।

लेकिन ! अंग्रेजी मुझ पे भारी है, लढ़ाई अस्तित्व की जारी है,  
स्वार्थ छोड़ संकल्प ले, यह मेरी शिफ़ारिस है,  
हिंदी दिवस पर ही सही, याद रखना यही मेरी गुजारिस है। 
हिंदी हूँ, भारत माँ के माथे की बिंदी हूँ ।

*जीवन पांडेय*

जीवन पांडेय उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के जागेश्वर निवासी हैं।
वर्तमान में भारत सरकार के एक उपक्रम में कार्यकारी प्रबंधक के तौर पर कार्यरत हैं।